रविवार, 7 सितंबर 2008

पूरन का कुंआ

पूरन भक्त की कुर्बानी और सामंती दौर में अपनी परंपराओं से जुड़े रहने के बदले में मिली मौत से भी बदत्तर सजा की कहानी पंजाब के बच्चे-बच्चे की जबान पर है। पूरब ही नहीं पश्चिमी पंजाब का भी हर बाशिंदा इस कहानी को अपने मन में बसाए हुए है...

उस दिन राजे सलवान के घर पूरन ने जन्म लिया, उसी दिन लद्धी के घर में दुल्ला पैदा हुआ था। यह अकबर के राज्यकाल का समय था।Ó फरूखाबाद के रहने वाले और वारिस शाह फाउंडेशन के प्रधान मोहम्मद वारसी बहुत उत्साह से बता रहे थे। हमारे पास लाहौर हाईकोर्ट के जज जनाब अकरम बिट्टु, जो साईं मीयां मीर दरबार लाहौर के चेयरमैन भी हैं, की गाड़ी की और हम लाहौर से सियालकोट के शाहराह पर जा रहे थे। मेरे साथ अमृतसर के हरभजन सिंह बराड़ और साईं मीयां मीर इंटरनैशनल फाउंडेशन की लुधियाना इकाई के प्रधान भुपिंदर सिंह अरोड़ा थे। मोहम्मद वारसी हीर बहुत अच्छा गाते हैं और रास्ते में उनके मीठे बोल हमारे कानों में मिठास घोलते रहे। बीच-बीच में वह हमें इर्द-गिर्द की जानकारी देते रहे।
सियालकोट में हम नजीर साहिब के घर ठहरे। सियालकोट से ढाई-तीन किलोमीटर दूर पूरन भक्त के ऐतिहासिक कुंएं का सेवादार है। उसे हमारे आने का पहले से ही मालूम था, इसलिए वह अपने परिवार समेत हमारा इंतकाार कर रहा था। वह 75 वर्ष का सादा मिजाका व्यक्ति था। उसकी पत्नी हमें बहुत अदब से ले गई और कहने लगी कि उसने साठ साल बाद सरदार देखे हैं। उसने बताया कि बंटवारे के वक्त वह दस वर्ष की थी और कुछेक धुंधली यादें अभी भी उसके मन में हैं।
नजीर को साथ लेकर हम बाहर निकले, तो बस स्टैंड के पास खान स्वीट शॉप वाले ने हमारा रास्ता रोक लिया। वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और कहने लगा कि मेरी दुकान से लस्सी पीकर कारूर जाना। यही नहीं हमें देखकर इर्द-गिर्द आ पहुंचे लोगों को भी उसने लस्सी पिलाई। लगभग 20-25 गिलास लस्सी उसने पिला दी। बराड़ साहिब ने पैसे देने के लिए पर्स निकाला, तो वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया, 'सरदार साहिब, पैसे किसलिए? मैं तो बहुत खुश हुआ हूं अपने भाइयों के दर्शन करके। इसी तरह आते-जाते रहा कीजिए।Ó वह पीछे से पठानकोट का रहने वाला था। बंटवारे का दर्द उसकी आंखों में भी था।
हम पूरन के कुंएं के पास पहुंच गए। बहुत बड़े घेरे में वृक्षों के झुंड में यह बहुत ही अद्भुत नकाारा था। नजीर बोला, 'बंटवारे से पहले यहां हकाारों हिंदू आते थे। इस कुंएं की बहुत मान्यता थी। लोग इसका जल अपने घरों में ले जाते थे। इस कुंएं के पानी से नहाने से कई बीमारियों से मुक्ति मिलती है, यह लोगों का मानना था। अब मुस्लिम लोग भी आते हैं।Ó वह बातें कर रहा था, तो मैं उसकी भाषा पर ध्यान दे रहा था। उसकी भाषा से डोगरी बोली की महक आ रही थी। मैंने उसे इसके बारे में पूछा, तो कहने लगा कि जम्मू यहां से कयादा दूर नहीं। शायद इलाके का असर हो।
पूरन के कुंएं के नकादीक नानकशाही र्ईंटों से बना हुआ वह कमरा भी है, जिसमें पूरन को कुंएं से निकालकर रखा गया था। नजीर ने अपनी मीठी डोगरी भाषा में पूरन की कथा सुना दी। मैंने कुछ अंश शिव कुमार बटालवी की 'लूणाÓ में से सुनाए। नजीर ने वह जगह दिखाई, जहां राजा सलवान का बाग था। पूरन की अंधी हो चुकी मां इच्छरां भी उसे इसी बाग में मिली थी। पास ही गुरु गोरखनाथ का टिल्ला था। मुझे इन ऐतिहासिक जगहों पर घूमना अच्छा लग रहा था। टिल्ले पर पहुंचकर वारसी से रहा न गया। वह ऊंची आवाका में गाने लगा—
तेरे टिल्ले त्तों सूरत दींहदी हीर दी,
औह लै वेख गोरखा, उडदी ऊ फुलकारी।
-तलविंदर सिंह
(लेखक पंजाबी कथाकार हैं)

सोमवार, 18 अगस्त 2008

सुन मेरे बंधु...

सचिन दा पहले गायक थे, बाद में संगीतकार। उनके गाए और संगीतबद्ध किए गानों में दर्शन है, जो प्रकाशस्तंभ की तरह हमें रोशनी दिखाते हैं...

हिमेश रेशमिया जैसे गायक-संगीतकके इस युग में मुझे सचिन देव बर्मन को याद करके दिल को सुकून मिलता है। 2006 में सचिन देव बर्मन की जन्मशती मनाई गई थी। मुझे याद है कि इस मौके पर भारतीय डाक विभाग ने एक डाक-टिकट भी ज़ारी किया था। आज मुझे याद आ रहे हैं वो गीत, जो स्वयं सचिन दा ने गाए थे।
जब भी बारिश ठीक से नहीं होती, तो हम भारतीयों का मन बेकरार हो जाता है। शायद इसकी वजह यह है कि बड़े शहरों में रहने के बावजूद हमारे मन में कहीं एक गंवई व्यक्ति छिपा हुआ है और उस व्यक्ति का बारिश से गहरा नाता है। बारिश न होने पर हम संगीत प्रेमियों को सचिन दा का एक गीत याद आता है, जो उन्होंने 1965 में 'गाइड में गाया था। बोल थे-अल्ला मेघ दे पानी दे, इस साल फिर बारिश कम हो रही है कहीं-कहीं सूखे की स्थिति है और विकल किसान आसमान की ओर देख रहा है...'आंखें फाड़े दुनिया देखे हाय ये तमाशा, हाय रे विश्वास मेरा, हाय मेरी आशा। अल्ला मेघ दे। यह बाउल शैली का महान गीत है।
सवाल यह उठता है कि एक संगीतकार होने के बावजूद सचिन दा को गाने की ज़रूरत ही क्या थी। और इसका जवाब यह है कि सचिन दा पहले गायक थे और बाद में संगीतकारे। सचिन दा का जन्म त्रिपुरा के कुमिला शहर में हुआ था। विभाजन के बाद यह जगह बांग्लादेश का हिस्सा बन गई। त्रिपुरा के राजपरिवार में पैदा हुए सचिन दा ने शास्त्रीय-संगीत की अपनी शुरुआती तालीम अपने पिता नवद्वीपचंद्र देव बर्मन से ली थी, जो स्वयं एक सितारवादक और ध्रुपद गायक थे। इसके बाद उन्होंने उस्ताद बादल खां और भीष्मदेव चट्टोपाध्याय से सीखा। शुरुआत में सचिन दा रेडियो पर पूर्वी बंगाल और उत्तर-पूर्वी बंगाल के लोकगीत गाते थे।
24-25 साल की उम्र तक कुमार सचिन लोकसंगीत और सुगम संगीत के लोकप्रिय गायक बन चुके थे। वो आकाशवाणी के लिए गाते थे। उस दौरान हिंदुस्तान रिकॉर्ड्स ने उनसे संपर्क किया और उनके उपशास्त्रीय गीतों का एक रिकॉर्ड ज़ारी किया। इस रिकॉर्ड का गीत 'धीरे से जाना बगियन में बेहद लोकप्रिय हुआ था।
1933 में सचिन देव बर्मन ने अपना पहला गीत न्यू थियेटर्स की 'यहूदी की लड़की के लिए रिकॉर्ड करवाया था, जिसके संगीतकार पंकज मलिक थे। पर इस गाने को बाद में यह कहकर पहाड़ी सान्याल से रिकॉर्ड करवा लिया गया कि सचिन देव बर्मन के उच्चारण पर बंगाल का गहरा असर है। इस बात से सचिन दा आहत ज़रूर हुए, लेकिन उन्होंने तय कर लिया कि अब वो संगीतकार बनने पर ज़्यादा ज़ोर देंगे।
कहते हैं कि 1940 में सचिन दा बंबई पाश्र्वगायक बनने का मकसद लेकर ही आए थे और उन्होंने 1941 में मोहन पिक्चर्स की 'ताजमहल में दो गाने भी गाए। इनके बोल थे-'प्रेम प्यार की निशानी और 'चले चलो प्रेम के राही। संगीतकार थे माधवलाल डी. मास्टर। दिलचस्प बात यह है कि इस रिकॉर्ड पर गायक का नाम कुमार सचिन देव बर्मन लिखा है। शुरुआत में सचिन दा अपने नाम के आगे राजघराने के राजकुमार का सूचक शब्द 'कुमार लगाया करते थे।
बंबई आने के कुछ साल बाद 1946 में उन्होंने शुरुआती दौर का अपना एक मार्मिक गीत गाया था फिल्मिस्तान की 'आठ दिन में। बोल थे-'उम्मीद भरा पंछी था खोज रहा सजनी। आपको बता दें कि इसे हिंदी के प्रख्यात कवि गोपाल सिंह नेपाली ने लिखा था। यह भी सचिन दा के गाए अनमोल गानों में से एक है। इसके बाद लगभग तेरह सालों तक सचिन दा ने अपने संगीत निर्देशन में कोई गीत नहीं गाया। फिर आई बिमल रॉय की 'सुजाता, जिसमें सचिन दा ने वो गीत गाया, जो अब उनका सिग्नेचर-गीत बन चुका है, उनकी पहचान। 'सुन मेरे बंधु रे सुन मेरे मितवा। सही मायनों में सचिन दा की गायकी का युग यहीं से शुरू होता है। उनकी आवाज़ में एक खास भटियाली खुशबू है। और यही वजह है कि जब जब सचिन दा को लगा कि यह गीत उनकी आवाज़ में फबेगा, तब-तब उन्होंने कुछ गीतों को अपनी आवाज़ दी।
1963 में उन्होंने बिमल रॉय की 'बंदिनी में गाना गाया-'मेरे साजन हैं उस पार। इस गाने को भी बैकग्राउंड में ही रखा गया था। सचिन दा के गाए ज़्यादातर गाने पाश्र्व में बजते रहते हैं और फिल्म की कहानी आगे बढ़ती जाती है। 1965 में आई 'गाइड में सचिन दा ने 'मेघ दे के अलावा एक और बेमिसाल गीत गाया था। शैलेंद्र का लिखा गीत-'वहां कौन है तेरा मुसािफर जाएगा कहां। अपनी लेखनी और गायकी में यह गाना बहुत अनमोल है। 'कोई भी तेरी राह ना देखे, नैन बिछाए ना कोई, दर्द से तेरे कोई ना तड़पा, आंख किसी की ना रोई, कहे किसको तू मेरा, मुसाफिर जाएगा कहां।
1969 में सचिन दा ने शक्ति सामंत की 'आराधना में संगीत दिया। इस फिल्म का गाना 'सफल होगी तेरी आराधना दार्शनिक गीतों का सिरमौर है। इस गाने को फिल्म के बांग्ला संस्करण में भी रखा गया था। सचिन दा के ज़्यादातर गाने ऐसे हैं, जिनमें दर्शन है। जो एक लाइटहाउस की तरह हमें रोशनी दिखाते हैं। 1969 में ही उन्होंने एक और बेमिसाल गाना गाया था, 'तलाश में। यह गाना था-'मेरी दुनिया है मां तेरे आंचल में। इसी तरह से उन्होंने 'प्रेमपुजारी में 'प्रेम के पुजारी हम हैं रस के भिखारी जैसा गीत गाया था। सचिन दा का सीना तब गर्व से फूल गया था, जब 1971 में उनके बेटे राहुल देव बर्मन ने उनसे 'अमर प्रेम का गीत गवाया था। बोल थे-'डोली में बिठाइके कहार। 1972 में उन्होंने 'जि़ंदगी-जि़ंदगी में दो गाने गाए। सचिन दा ने अपनी आवाज़ का बेहद संयमित इस्तेमाल किया। और हमें इस बात का अफसोस रह गया कि आिखर इतने लंबे कैरियर में उन्होंने केवल 26 हिंदी गाने ही क्यों गाए। (लेखक विविधभारती में कार्यरत हैं)
(दैनिक भास्‍कर से साभार)

सोमवार, 16 जून 2008

गिरीश कारनाड के नाटक तुगलक में हमारा समय और समाज

डा: माधव हांडा
तुगलक अपने समय और समाज के द्वंद्व और यथार्थ का सम्मोहक रूपक है। कोई समकालीन रचनाकार इतिहास या मिथ को केवल उसकी पुनर्रचना के लिए नहीं उठाता। जब इतिहास या मिथ में कहीं न कहीं वह अपने समय और समाज का साद्श्य पाता है, तभी वह उसे अपनी रचना का विषय बनाता है। अपने समय और समाज से सीधे मुठभेड में अक्सर खतरा रहता है। रचनाकार किसी समय और समाज में रह कर उस पर तटस्थ टिप्पणी या उसका तटस्थ मूल्यांकन नहीं कर पाता। इतिहास या मिथ की पुनर्रचना में पूरी तरह तटस्थ और निर्मम रहा जा सकता है और इस तरह अपने समय और समाज के द्वंद्व और यथार्थ को उसमें विन्यस्त करने में भी आसानी होती है। गिरीश कारनाड ने तुगलक और उसके समय और समाज की नाटकीय पुनर्रचना अपने समय और समाज के भीतर झांकने के लिए ही की है। यहां व्यक्ति और समय, दोनों दूरस्थ अतीत के हैं, इसलिए कारनाड इस निर्मिति में पूरी तरह निर्मम और तटस्थ रह पाए हैं।आजादी के बाद के दो-ढाई दशकों का आधुनिक भारतीय इतिहास में खास महत्व है। एक तो इस समय का शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व देश निर्माण के उत्साह से लबालब था और दूसरे, इस समय यहां जन साधारण की आकांक्षाएं भी आसमान छू रही थीं। योजनाकारों ने नेतृत्व की पहल पर आदर्शवादी योजनाएं बनाईं, आर्थिक और सामाजिक विशमता समाप्त करने के संकल्प लिए गए और लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठाने की बातें हुईं, लेकिन तमाम शुभेच्छाओं के बावजूद हालात नहीं बदले। योजनाओं का लाभ जनसाधारण तक नहीं पहुंचा और विशमता बढ़ती गई। नौकरशाही की मंथर गति और टालमटोल तथा स्पष्ट नीति के अभाव में नेतृत्व द्वारा की गई पहल और निर्णयों को अमल में नहीं लाया जा सका। गत सदी के सातवें दषक में नेतृत्व और जनसाधारण के सपनों और आकांक्षाओं का पराभव शुरू हो गया। उदाहरण के लिए आजादी के बाद भूमि सुधार तत्काल अपेक्षित थे,लेकिन प्रशासनिक शिथिलता और प्रबल इच्छा शक्ति के अभाव में इनको लागू नहीं किया जा सका। 1961 तक जमीदारों का भूस्वामित्व कागजों पर घट कर 4.8 से 8.5 प्रतिशत हो गया, लेकिन वस्तुस्थिति इससे एकदम अलग थी। लगभग सभी प्रदेशों में भूमि सुधारों का कार्यान्वयन फर्जी साबित हुआ। इसी तरह दूसरी पंचवर्षीय योजना (1957-61) में राष्टीय आय में 25 प्रतिशत वृध्दि का लक्ष्य रखा गया, लेकिन इसका आधा भी नहीं पाया जा सका। इस दौरान गरीबों और अमीरों में खाई और बढ़ गई और बेकारी पर भी काबू नहीं पाया जा सका। 1951 से 1961 के बीच प्रति व्यक्ति आय में केवल दो प्रतिशत की वृध्दि हो पाई। 1960 के दक तक बढ़ी हुई आमदनी और खर्चे का मुख्य लाभ आबादी के उच्च, मध्य और धनी तबकों को ही मिला। नीचे के 40 फीसदी यानि लगभग सभी गरीबों को आर्थिक परिवर्तनों का कोई फायदा नहीं हुआ।दरअसल आजादी के बाद में आरंभिक दो दशकों के आदर्शवाद और उससे मोहभंग का तुगलक के समय से गहरा साम्य है। तुगलक एक आदर्शवादी और स्वप्नदृश्टा शासक था और अपने समय से आगे की सोचता था। उसने सल्तनत के विस्तार और अपनी प्रजा के कल्याण की कई महत्वाकांक्षी, लेकिन अपारंपरिक योजनाएं बनाईं। विडंबना यह है कि उसे इन सपनों को अमली जामा पहनाने में समाज के किसी तबके का सहयोग नहीं मिलता। उसके विष्वस्त और आत्मीय व्यक्ति ही उसे धोखा देते हैं या घटनाक्रम से घबरा कर उसका साथ छोड़ जाते हैं। प्रजा उसकी अपारंपरिक भावनाओं और कार्यो को नहीं समझती, उलेमा अपनी उपेक्षा के कारण उसके विरुद्ध दुष्प्रचार करते हैं, अमीर-उमरा उसके विरुद्ध शडयंत्र करते हैं और अजीज और आजम जैसे लोग उसकी हर एक शुभेच्छामूलक घोशणा का अपने क्षुद्र स्वार्थ में दुरुपयोग करते हैं। उसकी सौतेली मां उसे धोखा देती है और उसका आत्मीय वाकया नवीस बरनी उसका साथ छोड़कर चल जाता है। विफल और सब तरफ से हताश तुगलक अंतत: तलवार की मदद से अपने विरोधियों के दमन का रास्ता अख्तियार करता है। देश में पराभव और मोहभंग का दौर 1962 के आसपास अपने चरम पर था और तुगलक प्रकाशन भी इसी दौरान 1964 में हुआ। जाहिर है, कारनाड ने अपने समय और समाज को बारीकी से देखा और उसको मुहम्मद बिन तुगलक के समय और समाज में रूपायित किया। यहां यथार्थ और द्वंद्व हमारे समय का है और केवल उसका ताना-बाना, मतलब घटनाएं और चरित्र सल्तनतकालीन है।तुगलक की चरित्र सृष्टि में इतिहास और कल्पना, दोनों का योग है, लेकिन इतिहास पर आधारित होने के कारण कारनाड को चरित्र निर्माण में कल्पना की छूट ज्यादा नहीं मिली है। नाटक के ऐतिहासिक होने के कारण कारनाड ने इसके चरित्रों के वैयक्तिक जीवन, सामाजिक परिवेश और भाषा के संबंध में पर्याप्त शोध की है और उनके संबंध में इतिहास में उपलब्ध तथ्यों की कल्पना का पुट देकर जीवंत बनाया है। तुगलक में मुहम्मद बिन तुगलक नायक और धुरि चरित्र है और शेष सभी चरित्र यहां उसके चरित्र के विकास में पूरक की भूमिका निभाते हैं। नाटक में तुगलक का चरित्र आरंभ में आदर्शवादी और स्वप्नदृश्टा है, लेकिन परिस्थितियां धीरे-धीरे उसे क्रूर और निरंकुश तानाशाह और अंत में एकाकी और उन्मादी व्यक्ति में तब्दील कर देती है। तुगलक बुिद्धमान है,वह सल्तनत और प्रजा के हित में युक्तिसंगत निर्णय लेता है। राजधानी स्थानांतरण, प्रतीक मुद्रा का प्रचलन और खुरासान योजना केवल उसकी सनक के नतीजे नहीं हैं, इनके पीछे वजनदार तर्क है। तुगलक को अपने मनुष्य की ताकत पर पूरा भरोसा है वह खुदएतमादी है और धार्मिक कट्टरपंथियों का अंधानुगमन नहीं करता। उसका सपना बहुत बड़ा है। सुल्तान के रूप में तुगलक कूटनीतिज्ञ भी है। वह चतुर राजनीतिज्ञ की तरह अपने विरोधियों को रास्ते से हटाता है। धार्मिक नेता शेख इमामुद्दीन और अमीर शहाबुद्दीन सियासी दाव-पेंच के खेल में उससे बुरी तरह पिट जाते हैं। अपने विरुद्ध होने वाले षडयंत्रों को वह चतुराई से नाकाम कर देता है। सब तरफ से जूझता हुआ, अपनी आत्मीय और विश्वस्त सौतेली मां तथा शहाबुद्दीन और अमीरों के षडयंत्रों से आहत तुगलक नाटक के अंतिम दृष्यों में हताश और निराष व्यक्ति के रूप में सामने आता है। इससे धर्म में उसकी आस्था को भी धक्का लगता है और वह अपनी सल्तनत में इबादत पर भी रोक लगा देता है। तुगलक अंत में निपट एकाकी होकर अपने ही हाथों किए गए सर्वनाश से घिरा उन्माद के छोर तक पहुंच जाता है। कारनाड के आलोचकों का कहना है कि वे अपने अन्य नाटकों की तरह तुगलक में भी अपने समय और समाज के यथार्थ और द्वंद्व को व्यक्त करने के लिए तुगलक के रूपक का सहारा लेते हैं, जिससे यथार्थ विकृत रूप में सामने आता है। इसके विपरीत कारनाड के समर्थकों का कहना है कि इस नाटक में अतीत के दूरस्थ यथार्थ को माध्यम बनाकर कारनाड अधिक निष्पक्ष और निर्भीक ढंग से अपने समय के यथार्थ को समझते-समझाते हैं। विख्यात कन्नड साहित्यकार यू.आर.अनंतमूर्ति के अनुसार कारनाड नाटक के कवि हैं। समसामयिक समस्याओं से निबटने के लिए इतिहास और मिथ का उपयोग उन्हें अपने समय पर टिप्पणी की मनोवैज्ञानिक दूरी प्रदान करता है। तुगलक बहुत सफल हुआ, क्योंकि यह एक यथार्थवादी नाटक नहीं था।यह सही है कि तुगलक अपने समय और समाज के यथार्थ में सीधे हस्तक्षेप नहीं करता और उसके चरित्र भी कुछ हद अपने समाज के वर्गीय प्रतिनिधि हैं, लेकिन इससे एक रंग नाटक के रूप में तुगलक का महत्व कम नहीं होता। कारनाड भव्य और महान चरित्र और घटना वाले इस नाटक के माध्यम से दर्शकों के मन में अपने समय और समाज के यथार्थ को चरितार्थ करने में सफल रहे हैं।

शनिवार, 31 मई 2008

लफ़ज़ों के नए सौदागर

यूनुस ख़ान
हिंदी सिनेमा का गीत-संसार बड़ा निराला है और सबसे निराले हैं इसके गीतकार। मजरूह सुल्तानपुरी आए थे मुशायरा पढऩे और बना दिए गए गीतकार। आनंद बख्शी गायक बनने आए थे, कई बार वापस लौटे, पर आखिरकार कामयाब हुए। अनजान पहले ही एक कामयाब गीतकार बन चुके थे। जब उनके बेटे समीर ने गीतकार बनने की इच्छा व्यक्त की, तो अनजान ने साफ कह दिया था कि अपने हिस्से का संघर्ष तुमको स्वयं करना होगा। आपने देखा ना कि मजरूह सुल्तानपुरी से लेकर समीर तक की पीढ़ी के गीतकारों के बारे में हम कुछ न कुछ तो जानते ही हैं, लेकिन पिछले तकरीबन पांच सालों में एकदम नए गीतकारों की एक पूरी पीढ़ी सक्रिय हुई है। और दिक्कत यह है कि इन गीतकारों के बारे में हम ज़्यादा नहीं जानते। तो आइए, आज आपका परिचय लफ्ज़ों के सौदागरों की नई पीढ़ी से करवाया जाए।
नए गीतकारों में सबसे कम चर्चित नाम है मुन्ना धीमन का। मुन्ना धीमन ने हाल ही में अजय देवगन की फिल्म 'यू मी और हम' और अश्विनी धीर की 'वन टू थ्री' के गाने लिखे हैं। आने वाली फिल्म 'हाल-ए-दिल' में भी उन्हीं के गाने हैं। जब रामगोपाल वर्मा की फिल्म 'नि:शब्द' में अमिताभ बच्चन ने उनका लिखा गीत 'रोकााना जिएं...' गाया, तो अचानक सबका ध्यान मुन्ना धीमन पर गया। मुन्ना धीमन का नाता बुड़ैल कॉलोनी चंडीगढ़ से रहा है। दरअसल वो चंडीगढ़ संगीत नाटक अकादमी के लिए नुक्कड़ नाटक लिखा करते थे। बचपन से ही लिखने के शौकीन मुन्ना ने यूं ही एक दिन फिल्म डायरैक्ट्री उठाई और कुछ गीत संगीत-निर्देशकों को भेज दिए। कुछ समय बाद संगीतकार विशाल भारद्वाज ने फोन किया और कहा कि वो जल्दी ही उनके साथ काम करेंगे। इसके बाद मुन्ना धीमन ने चैनल वी के पॉपस्टार्स के अलबम 'आसमान' के लिए गाने लिखे। मुन्ना धीमन की लेखनी पर गुलज़ार का असर नज़र आता है। 'यू मी और हम' के एक गाने की बानगी पेश है, 'अपने रंग गंवाए बिन, मेरे रंग में घुल जाओ, अपनी धूप बुझाए बिन मेरी छांव में आ जाओ। तुम तुम ही रहो, मैं मैं ही रहूं, हम हम ही रहें, तीनों मिलकर साथ चलें, साथी जनम जनम, यू मी और हम।'
इन दिनों तेज़ी से उभरा एक और नाम है इरशाद कामिल का। इरशाद भी चंडीगढ़ के ही हैं। उन्होंने आधुनिक हिंदी कविता में पीएचडी की है। वह ट्रिब्यून के संवाददाता थे। एक दिन निर्देशक लेख टंडन का इंटरव्यू लेने पहुंचे और बातों-बातों में लेखजी ने उन्हें मुंबई आकर लिखने का निमंत्रण दे डाला। इरशाद ने इसके बाद मुंबई में कई सीरियल लिखे, जिनमें संजीवनी, कत्र्तव्य वगैरह शामिल हैं। 'चमेली' उनकी पहली फिल्म थी। इसके बाद इरशाद ने कई फिल्मों के गीत रचे, जैसे 'शब्द', 'सोचा न था', 'आहिस्ता आहिस्ता', 'करम', 'नील और निक्की' वगैरह। उन्होंने उस्ताद सुल्तान खान के प्रसिद्ध अलबम 'उस्ताद एंड दीवाज़' के लिए भी गीत लिखे थे। लेकिन इरशाद को सही मायनों में स्टार-गीतकार बनाया इम्तियाज़ अली की फिल्म 'जब वी मेट' ने।
पत्रकार नीलेश मिश्रा इन दिनों एक चर्चित गीतकार बन चुके हैं। नैनीताल के रहने वाले नीलेश को गीत लिखने का शौक था। उन्होंने अपने गीत जगजीत सिंह को भेजे भी थे, पर उनकी ओर से कोई उत्तर नहीं आया। फिर उनकी मुलाकात हुई महेश भट्ट से। और भट्ट साहब ने उनको पहला मौका दिया। नीलेश के लिखे कई गाने बेहद मकबूल हुए हैं। जैसे फिल्म 'जिस्म' के गाने 'जादू है नशा है', 'चलो तुमको लेकर चलें'। 'वो लम्हे' का गीत 'क्या मुझे प्यार है' और 'चल चलें' वगैरह। हाल ही में आई 'जन्नत' के कुछ गीत नीलेश ने लिखे हैं। उनका एक अंग्रेज़ी उपन्यास '173 अवर्स ऑफ कैप्टिविटी' प्रकाशित हो चुका है।
महेश भट्ट की कई फिल्मों के गीतकार रहे हैं सईद कादरी। सईद जोधपुर के रहने वाले हैं। जब मुंबई में गीतकार बनने की तमन्ना में अनगिनत लोग संघर्ष कर रहे हों, तो मुंबई से बाहर के इन गीतकारों का कामयाब होना किसी चमत्कार से कम नहीं है। नीलेश अभी भी दिल्ली निवासी हैं, सईद कादरी अभी भी जोधपुर में ही रहते हैं और तभी मुंबई आते हैं, जब गानों की दरकार होती है। अस्सी के दशक के उत्तराद्र्ध में मुंबई में अपनी किस्मत आज़मा चुके सईद जोधपुर लौटकर इंश्योरैंस एजेंट बन गए। आगे चलकर किकस्मत ने फिर करवट बदली और इस बार सईद फिल्म-संसार के बेहद चर्चित गीतकार बन गए। 'पाप', 'मर्डर', 'ज़हर', 'रोग', 'कलयुग', 'गैंगस्टर', 'अनवर' और 'जन्नत' जैसी अनेक फिल्मों में उनके गाने आ चुके हैं।
स्वानंद किरकिरे नए गीतकारों में एक और चर्चित नाम है। स्वानंद इंदौर में पले-बढ़े हैं और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक होने के बाद वह थियेटर में सक्रिय हो गए थे। फिर टीवी सीरियल लिखे, सहायक निर्देशक हुए और गायक भी बने। कॉलेज के ज़माने में लिखा उनका गीत 'बावरा मन देखने चला एक सपना' सुधीर मिश्रा ने सुना, तो अपनी फिल्म 'हज़ारों $ख्वाहिशें ऐसी' में ले लिया। इसे $खुद स्वानंद ने ही गाया है। इसके अलावा स्वानंद ने 'परिणीता' और 'खोया खोया चांद' जैसी फिल्मों में भी गाने गाए हैं। 'परिणीता', 'एकलव्य', 'लगे रहो मुन्ना भाई', 'खोया खोया चांद' जैसी फिल्मों में स्वानंद ने गाने रचे हैं।
प्रसून जोशी वैसे तो मैकेन एरिक्सन जैसी अंतर्राष्ट्रीय एड एजेंसी के चीफ हैंं, लेकिन बतौर गीतकार वो खूब ख्याति अर्जित कर चुके हैं। प्रसून जोशी ने कई विज्ञापन लिखे हैं। एक बार हवाई अड्डे पर उनकी मुलाकात आदित्य चोपड़ा से हुई। दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया और फिर आगे चलकर आदित्य ने कुणाल कोहली की फिल्म 'हम तुम' के गीत प्रसून से लिखवाए। फिर 'रंग दे बसंती' के गीत और संवाद दोनों प्रसून ने लिखे। 'फना' और 'तारे ज़मीन पर' के लिए लिखे प्रसून जोशी के नगमे पर्याप्त चर्चित रहे हैं। चाहे प्रसून हों या सईद कादरी, नीलेश मिश्रा, स्वानंद किरकिरे या फिर मुन्ना धीमन, इन सभी ने कजरा, चूड़ी, बिंदिया और चुनरी जैसे शब्दों के मायाजाल में भटक रहे हिंदी फिल्मी गीतों को एक नई दिशा और एक नया सोंधापन दिया है। इसलिए हमें इस नई पीढ़ी के लफ्ज़ों के इन सौदागारों के बारे में जानना भी चाहिए और इनका आभारी भी होना चाहिए।
(दैनिक भास्‍कर से साभार)